This is Not Our New Year || ये हमारा नव वर्ष नहीं
अंग्रेजी (ईसाई) नव वर्ष के बढ़ते प्रभाव के बीच यह कविता हिन्दुओं को सचेत कर रही है कि ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं, है अपना ये त्यौहार नहीं, है अपनी ये तो रीत नहीं, है अपना ये त्यौहार नहीं। इस कविता के पंक्तियों के आशय से पूरी तरह से स्पष्ट है कि यह अंग्रेजी नव वर्ष (01 जनवरी) हमारा अपना नहीं है, बल्कि हमारे प्राचीन और विज्ञान प्रमाणित हिन्दू कैलेण्डर से नकल करके बनाये गये कैलेण्डर अंग्रेजों द्वारा भारतीयता को मिटाने के लिए हम भारतीयों पर थोपा गया था।
दुर्भाग्य की बात यह है कि जो अंग्रेज, भारत में छोड़कर गये थे हमने उसे अपना लिया। इसके पीछे मूल कारण यही है कि हम अपनी भारतीय संस्कृति, सनातन संस्कृति को विस्मृत कर चुके हैं। अपने प्राचीनता और अपनी धरोहरों का बोध भी हमको नहीं रहा। जब वापस हम अपनी संस्कृति पर आयेंगे तो हमें वो मिलेगा जो वास्तव में मूल भारत का कल्पना था।
अपना मूल भारत क्या था? क्या हमें जरा भी एहसास है इस बात का? उत्तर है नहीं, क्योंकि आज जो भारत दिख रहा है हम जिस भारत में जी रहे हैं उसे पहले मुगलों ने अपने हिसाब से बनाया और फिर बाद में अंग्रेजों ने। इन लुटेरों और आतातायियों ने हमें अपनी संस्कृति से विमुख कर दिया।
भारत का स्वत्व क्या है इस पर विचार करिए? भारत के स्वत्व और संस्कृति को जानना है तो हमें मुगलों से पहले के भारत का गहन अध्ययन करना होगा। लुटेरों के आने के पहले वाला भारत ही वास्तविक भारत था। हम आज भले ही हम अपनी दिनचर्या में अंग्रेजी कैलेण्डर का उपयोग करते हैं लेकिन आज भी यह सच है कि हम अपने त्यौहारों में अंग्रेजी कैलेण्डर का प्रयोग कभी नहीं करते।
आज भी समाज का हर वर्ग किसी भी शुभ कार्य करने के लिए भारतीय कालगणना का ही सहारा लेता है। गृह प्रवेश का कार्यक्रम हो, वैवाहिक कार्यक्रम हो या फिर कोई अन्य शुभ कार्य, हम भारतीय हमारे पंचांग का ही सहयोग लेते हैं। हमारे त्यौहार भी पूर्णतः प्राकृतिक हैं और ये ग्रह नक्षत्रों पर आधारित होते हैं। इसलिए पूर्ण विश्वास से यह कहा जा सकता है कि चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से प्रारम्भ होने वाले दिन ही पूर्णतः वैज्ञानिक और प्राकृतिक नव वर्ष है। इसलिए यही हम भारतीयों का अपना नव वर्ष है, अंग्रेजों वाला नहीं।
अंग्रेजी कैलेण्डर के हिसाब से नव वर्ष को अगर देखें तो एक जनवरी को मनाया जाने वाला वर्ष कहीं से भी कुछ नया नहीं लगता है। नव वर्ष के नाम पर किया जाने वाला मनोरंजन फूहड़ता और अश्लीलता के अलावा कुछ भी नहीं। आधुनिकता के नाम पर भारतीय समाज का शिक्षित वर्ग वह सब कुछ कर रहा है जो सभ्य समाज या भारतीय समाज के लिए बिल्कुल भी स्वीकार करने योग्य नहीं है। कभी-कभी हमारे समाज के यही शिक्षित और बुद्धिजीवी लोग संस्कृति को बचाने के नाम पर लम्बे-चौड़े भाषण भी देते हैं।
भारतीय कालगणना के हिसाब से मनाए जाने वाले त्यौहारों के पीछे कोई न कोई कारण होता है, जो वैज्ञानिक दृष्टि से भी सही माना जाता है। हम सब यह तो जानते ही हैं कि हिन्दी कालगणना के अंतिम मास फाल्गुन का वातावरण भी वर्ष के समाप्ति का संकेत देता है, साथ ही नव वर्ष का पहला दिन सुखद हो जाता है।
सोचिये कि हमारे ऋषि-मुनि कितने श्रेष्ठ रहे होंगे जिन्होंने ऐसी काल गणना को विकसित किया, जिसमें कब क्या होगा इसकी पूरी जानकारी समाहित है। हमारे ऋषि-मुनि जो हजारों लाखों वर्षों पूर्व हमें जो शिक्षा या जो जानकारी दे गये विज्ञान आज भी वहां तक नहीं पहुंच पाया है।
पुरातन काल से ही भारतीय संस्कृति में नव वर्ष का प्रारंभ चैत्र मास की शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से माना जाता रहा है। इस तिथि को हमारे भारतीय संस्कृति में अति पावन दिन माना गया है क्योंकि इसी प्रतिपदा को सूर्याेदय से ब्रह्मा जी ने सृष्टि के निर्माण की शुरुआत की थी इसलिए इस तिथि को सृष्टि का प्रथम दिवस भी माना जाता है। यह प्राकृतिक संयोग ही है कि हम भारतीय अपनी मूल की ओर वापस लौट रहे हैं। जो लोग कल तक हिन्दू नव वर्ष मनाने वालों की हंसी उड़ाते थे वे स्वयं आज इस ओर प्रवृत हो रहे हैं।
इस परिवर्तन को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत अपने स्वत्व की ओर लौट रहा है। भारतीयों को अब पूर्व में हुए अपने गलतीयों का आभास होने लगा है। अब ये लगने लगा है कि हमारा देश भी अब किसी मामले में दुनिया के देशों से पीछे नहीं है, बल्कि हमें मुगलों, अंग्रेजों और कम्यूनिस्टों द्वारा षड्यंत्र पूर्वक पीछे कर दिया गया था। अब इनके षड्यंत्र भी हमें समझ में आने लगा है। इसलिए अब लोग बहुत बड़ी संख्या में अपना हिन्दू नव वर्ष मनाने के लिए एकत्र होने लगे हैं। भारत में जबसे भाजपा की सरकार बनी है तबसे लोगों में बहुत जागरूकता आयी है इसके लिए हमें दिल से भाजपा और मोदी सरकार को धन्यवाद देना चाहिए।
वर्तमान में जिस प्रकार से हमारे मंदिरों पर भीड़ बढ़ रही है, वह इस बात का प्रमाण है कि भारत के लोग और भारत का युवा अब जाग रहे हैं। अब समाज अपने खुद के बुद्धि विवेक से अच्छे और बुरे के बीच तुलनात्मक अध्ययन करने लगा है। समाज के व्यवहार में व्यापक और अविश्वसनीय परिवर्तन आया है।
जो खुद को बुद्धिजीवी मानने वाले लोग पहले हर मुद्दे पर अपने हिसाब से व्याख्या करते थे आज वो भी भारतीय सनातन संस्कृति के अनुसार चलने की ओर प्रवृत हुए हैं। अब उन नेताओं और बुद्धिजीवियों को भी लगने लगा है कि अब भारतीय समाज और हिन्दुओं को भ्रमित करने के दिन बहुत बीत चुके हैं।
विश्व के कई देशों और धर्मों के लोग आज अपनी विकृतियों को छोड़कर भारतीय सनातन संस्कृति की ओर उन्मुख हो रहे हैं। धार्मिक दृष्टि से आस्था के केन्द्र के रूप में स्थित नगरों में यह दृश्य अब सामान्य हो चले हैं। आज आपको काशी में गंगा के घाट पर विभिन्न धर्मों के लोग और विदेशी नागरिक भजन कीर्तन करते हुए मिल जायेंगे।
मथुरा वृंदावन और ब्रज की गलियों में भी कृष्ण भक्ति में लीन अनेकों विदेशी नागरिक मिल जायेंगे। सनातन संस्कृति में इस बात को स्पष्ट तौर पर कहा जाता है कि भोगवादी विकृति से जब मन विकृत हो जाता है तो मन और आत्मा की शुद्धि के लिए पूरे दुनिया में सनातन संस्कृति ही सर्वाेत्तम है।
जब विदेशी लोग सनातन संस्कृति को अपनाकर उसकी राह पर चलने के लिए आतुर हो रहे हैं तो फिर यह तो हमारी अपनी है। यह हमारा स्वयं का है। इसलिए अपना नव वर्ष धूमधाम से मनाएं और अंग्रेजी मानसिकता को अपने मन से निकाल फेकें।
हम भले ही अंग्रेजों से आजाद हो गए हैं लेकिन उस गुलामी का काला साया एक आवरण की तरह हमारे सिर पर हमेशा स्थित रहता है। इसी वजह से हम उस राह का अनुसरण करने लगे थे जो हमारे संस्कृति और संस्कारों के साथ तनिक भी मेल नहीं खाते हैं।
पुरानी कहावत है कि जो देश प्रकृति के सिद्धान्तों के अनुसार चलता है प्रकृति खुद उसकी रक्षा करती है। वर्तमान में देखें तो जिस प्रकार से दुनिया के अनेक देशों में प्रकृति का प्रकोप दिखाई दिया है उससे मानव जीवन के समक्ष अनेक प्रकार की विसंगतियों ने जन्म लिया है। यह सभी प्रादुर्भाव पश्चिमी विचारधारा का अनुसरण करने के चलते ही हो रहा है।
भारतीय सनातन संस्कृति मानव जीवन को सुखमय बनाने का मार्ग प्रशस्त करती है। हम भले ही अपने शुभ कार्यों में अंग्रेजी के तारीखों को लिखते आये हैं लेकिन कभी भी उन तारीखों का शुभ कार्यों से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं रहता है। यह बात तो हम सभी जानते हैं कि हमारे भारत देश में जितने भी त्यौहार एवं शुभ कार्य किए जाते हैं उन सभी में केवल सनातन संस्कृति के भारतीय काल गणना की ही प्रधानता रहती है।
इसका स्पष्ट आशय यह है कि भारतीय ज्योतिष भारतीय काल गणना के हिसाब से उस कार्य के गुण और दोष को भली भांति प्रकट करने की क्षमता रखता है जो किसी दूसरे कालगणना में यह तनिक भी संभव नहीं है।
भारत राष्ट्र और भारतीयों की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रम संवत के साथ ही जुड़ी है। अंग्रेजीयत और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के वजह से आज भले ही सब जगह ईसवी संवत को ही माना जा रहा हो और भारतीय कालगणना विक्रमी संवत से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों, परंतु सत्य यह है कि देश के सभी सांस्कृतिक पर्व-उत्सव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक आदि महापुरुषों की जयंतियाँ आज भी भारतीय काल गणना के अनुसार ही मनाई जाती हैं, ईसवी संवत या अंग्रेजी कैलेण्डर के हिसाब से नहीं।
इतना प्रमाणिक होने के बाद भी हमारे समाज का एक वर्ग इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहा है। इसी वजह से हम अपने सामाजिक मान-मर्यादाओं का खुद ही नाश करते जा रहे हैं, जिसके चलते इसके अनेकों दुष्प्रभाव हमारे सामने आ रहे हैं और समाज में अनेक प्रकार की कुरितियां और विसंगतियां जन्म ले रही हैं, जो हमारे भारतीय जीवन दर्शन के हिसाब से जरा भी अनुकूल नहीं हैं और न ही स्वीकार योग्य हैं।
किसी भी शुभ कार्य के लिए शुभ समय की जरूरत होती है और यह शुभ समय बताने के लिए सही विधि केवल भारतीय पंचांग में ही समाहित है। भारतीय या हिन्दू नव वर्ष का पहला दिन यानी सृष्टि का आरम्भ दिवस, युगाब्द और विक्रम संवत जैसे दुनिया के प्राचीन संवत का प्रथम दिन, चैत्र नवरात्रि का प्रथम दिवस जिसमें मां दुर्गा की साधना की जाती है, श्री राम एवं युधिष्ठिर का राज्याभिषेक दिवस, आर्य समाज स्थापना दिवस, संत झूलेलाल जयंती और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के संस्थापक प्रखर देशभक्त डॉ0 केशवराव हेडगेवार जी का जन्मदिन, इतनी सारी विशेषताओं को समेटे हुए है हमारा नव वर्ष। यह वास्तव में हमें कुछ नया करने की प्रेरणा देता है।
वास्तव में ये दिन दुनिया का सबसे श्रेष्ठ दिवस है। यह सृष्टि का प्रथम दिवस है। इसकी काल गणना बड़ी सबसे प्राचीन है। सृष्टि की शुरूआत हुए अब तक 1 अरब, 96 करोड़, 8 लाख, 53 हजार, 123 वर्ष हो चुके हैं। यह गणना भारतीय ज्योतिष विज्ञान के द्वारा निर्मित है। आधुनिक विज्ञान भी सृष्टि की उत्पत्ति का समय लगभग दो अरब वर्ष ही बताता है जो भारतीय काल गणना की शाश्वत उपयोगिता का प्रमाण देता है।
भारतवर्ष में सनातन संस्कृति के अनुसार वसंत ऋतु में नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षित करने वाला है क्योंकि इस ऋतु में चारों ओर हरियाली ही हरियाली छायी रहती है। सभी पेड़-पौधों से नये पत्ते और फूल निकलते हैं जिससे प्रकृति का नव श्रृंगार किया जाता है।
विक्रमादित्य ने भारत की इन तमाम कालगणना, सनातन संस्कृति और सांस्कृतिक परम्पराओं को देखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नव वर्ष (नव संवत्सर) संवत को चलाने की परंपरा की शुरूआत की थी और तभी से पूरे भारत और सनातन संस्कृति के लोग इस तिथि को प्रतिवर्ष नव वर्ष मनाते है और स्वागत अभिनंदन करते हैं।
विचार करने की बात यह है कि हम भारतीय अपने जड़ों से जुड़े रहना चाहते हैं या फिर नकल करके पश्चिम के पीछे भागना चाहते हैं? यह सबको हमेशा ध्यान में रखना चाहिए की नकल हमेशा नकल ही होता है, वास्तविकता नहीं हो सकता। आज पश्चिमी देशों की नकल और उनकी चमक-दमक के प्रति हमारा बढ़ता आकर्षण हमें भारतीयता और हमारे सनातन संस्कृति से दूर कर रहा है। साथ ही एक कड़वा सच यह भी है कि दुनिया के विभिन्न देशों और धर्मों के लोगों को भारतीयता और सनातन संस्कृति पसन्द आने लगी है। जब दूसरे देशों और दूसरे धर्मों के लोग ऐसा कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं? सोचियेगा जरूर।
वन्दे मातरम्
जय श्री राम